कवि खुद को एक पेड़ के रूप में कल्पना करता है और साझा करता है कि कैसे उसे नहीं पता था कि उस पर फूल खिल सकते हैं, और कैसे उसका प्रेमी एक वसंत की तरह आया और फूल खिल गए:
मैं तो खड़ा था सूखा सा,
बरसों से एक ही ठूंठ जैसा।
कभी न सोचा था, मेरे तन पर,
आएगा रंग कोई नया सा।
पत्थर सी मेरी छाती थी,
धूल जमी थी हर डाली पर।
हवा भी छूकर चली जाती थी,
सूनी पड़ी थी मेरी हर लहर।
फिर एक दिन, चुपके से तुम आई,
जैसे दबे पाँव आती है बहार।
तुम्हारी साँसों की छुअन पाकर,
जागा मेरे भीतर खोया प्यार।
अचरज हुआ, जब पहली कली फूटी,
एक नन्ही सी, रंगत लिए गुलाबी।
मैंने कभी न जानी थी, यह सुंदरता,
जो मेरे भीतर थी इतनी छुपी।
फिर तो खिलते ही चले गए फूल,
हर शाख पर सजी रंगीन बहार।
तुम्हारी प्रीत की ऐसी ऋतु आई,
बंजर मुझमें भी आ गई फुहार।
अब मैं झुकता हूँ फूलों से लदकर,
महक उठती है मेरी हर साँस।
तुम न आती तो कौन जानता था,
कि मुझमें भी छुपा था ऐसा मधुमास।
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